इस लेख में हम ओशो के विचारों के माध्यम से तंत्र की अद्वितीयता और काम-ऊर्जा को ब्रह्मचर्य की ओर मोड़ने की प्रक्रिया के बारे में चर्चा करेंगे। ओशो की दृष्टि में, तंत्र का उद्देश्य केवल काम की ऊर्जा को नियंत्रित करना नहीं, बल्कि उसे सही दिशा में मोड़ना है। तंत्र की दृष्टि में काम केवल एक ऊर्जा है, जिसका सही उपयोग करने से व्यक्ति अपने जीवन में संतुलन और पूर्णता पा सकता है। हम जानेंगे कि कैसे इस यात्रा में हमें अपने भीतर की ऊर्जा को पहचानना और उसे सही दिशा में ले जाना है।
तंत्र अद्वैत है
ओशो के अनुसार, तंत्र अद्वितीय है। एक की ही स्वीकृति है। वह जो बुरा है, वह भी उस एक का ही रूप है। वह जो अशुभ है, वह भी उस एक का ही रूप है। तंत्र के मन में निंदा किसी की भी नहीं है। कंडेमनेशन है ही नहीं।
जी. एन. एम. टारेल ने एक किताब लिखी है: ‘ग्रेड्स ऑफ सिग्निफिकेंस, महत्ता की सीढ़ियां या महत्ता के सोपान।’ ओशो के तंत्र के दृष्टिकोण में जीवन में जो फर्क हैं, वह महत्ता के सोपानों के फर्क हैं। लेकिन पहली सीढ़ी भी मंदिर की अंतिम सीढ़ी का ही हिस्सा है। और पहली सीढ़ी भी हटा दी जाए तो मंदिर की अंतिम सीढ़ी तक पहुंचने का कोई उपाय नहीं है। जमीन के नीचे छिपी हुई कुरूप जड़ें भी आकाश में खिले हुए फूलों के प्राण हैं। और अगर कुरूप, अंधकार में डूबी जड़ों को काट दिया जाए, तो आकाश में खिलने वाले सुंदर फूलों की कोई संभावना नहीं है। मंदिर की बुनियाद में पड़े हुए बेढंगे पत्थर ही मंदिर के शिखर पर चढ़े स्वर्ण-कलश को सम्हाले हैं। और उन्हें, उन्हें इनकार कर दिया जाए, तो स्वर्ण-कलश भी जमीन पर धूल-धूसरित होकर गिर पड़ता है।
तंत्र की दृष्टि में काम-ऊर्जा
ओशो के विचारों के अनुसार, तंत्र जीवन को उसकी समग्रता में स्वीकार करता है। इस बात को पहले समझ लेना जरूरी है। क्योंकि इसी आधार पर तंत्र ने काम-ऊर्जा के रूपांतरण के विज्ञान को विकसित किया है। तंत्र की दृष्टि में काम-ऊर्जा दिव्य-ऊर्जा का पार्थिवीकरण है। तंत्र की दृष्टि में सेक्स एनर्जी, काम-ऊर्जा ब्रह्म की ही पहली सीढ़ी है।
इसका यह अर्थ नहीं कि तंत्र चाहता है कि व्यक्ति काम में डूबा रहे। इसका इतना ही अर्थ है कि हम जहां खड़े हैं, यात्रा वहीं से करनी पड़ेगी; और हम जहां खड़े हैं अगर वह भूमि, उस भूमि से नहीं जुड़ी है जहां हमें पहुंचना है, तो फिर यात्रा का कोई उपाय नहीं है। ओशो के अनुसार, मनुष्य काम में खड़ा है।
मनुष्य काम में, काम की भूमि पर मौजूद है। जहां हम अपने को पाते हैं प्रकृति की तरफ से, वह बिंदु काम का, सेक्स का बिंदु है। प्रकृति हमें वहीं खड़ा किए हुए है। कोई भी यात्रा इस बिंदु से ही होगी। अब इस बिंदु से हम दो तरह की यात्रा कर सकते हैं।
एक, जो साधारणतः लोग करने की कोशिश करते हैं, लेकिन कभी कर नहीं पाते, वह यह कि हम अपनी स्थिति से लड़ना शुरू कर दें। हम जहां खड़े हैं, उस भूमि के दुश्मन हो जाएं, अर्थात हम अपने ही दुश्मन हो जाएं और अपने को ही दो हिस्सों में खंडित कर लें। ओशो ने इस संघर्ष को मानसिक विक्षिप्तता कहा है। जब कोई व्यक्ति अपने को ऐसे दो खंडों में तोड़ता है, तो पहली तो बात यह समझ लेनी चाहिए कि जिसे वह इनकार कर रहा है वही वह है, और जिसे वह स्वीकार कर रहा है वही वह नहीं है।
ब्रह्मचर्य की यात्रा
ओशो के अनुसार, अगर कोई ब्रह्मचर्य तक पहुंचना चाहता है, तो काम से लड़ कर नहीं; क्योंकि तंत्र कहता है, लड़ कर तो हम स्वयं से कहीं भी पहुंच नहीं सकते हैं। लड़ेगा कौन? लड़ेगा किससे? हम एक हैं। ओशो ने इस बात को स्पष्ट किया है कि लड़ाई का अर्थ अपने को दो खंडों में बांटना होगा। वह स्किजोफ्रेनिक है। उस तरह व्यक्ति दो खंडों में टूट कर विक्षिप्त होगा।
तंत्र कहता है, काम को ही रूपांतरित करना है ब्रह्मचर्य तक, काम की ही शक्ति को ले जाना है ब्रह्म तक। वही काम की शक्ति जो दूसरे तक दौड़ती है, उसे पहुंचाना है स्वयं तक। ओशो के अनुसार, वही काम की शक्ति जो दूसरे की आकांक्षा करती है, उससे ही आकांक्षा करवानी है स्वयं की गहराइयों की। वही काम की शक्ति जो क्षुद्र सुख को खोजती है, उसी काम-शक्ति को मोड़ देना है विराट, अनंत आनंद की ओर, शाश्वत की ओर, मुक्ति की ओर।
काम-ऊर्जा का तटस्थ दृष्टिकोण
ओशो ने कहा है कि ब्रह्मचर्य सेक्स का विनाश नहीं है। ब्रह्मचर्य वहां है अब, जहां कल काम था। जहां कल काम की ऊर्जा बाहर की तरफ दौड़ रही थी, आज वहां वही ऊर्जा ब्रह्मचर्य बन कर भीतर की तरफ दौड़ी चली जा रही है।
तंत्र कहता है, किसी शक्ति को नष्ट करने के पागलपन में मत पड़ जाना, अन्यथा स्वयं ही टूटोगे, बिखरोगे। ओशो के अनुसार, जो लोग भी काम से लड़ेंगे, वे ब्रह्मचर्य को उपलब्ध नहीं होते, सिर्फ विकृतियों को, परवर्संस को उपलब्ध होते हैं। जो व्यक्ति भी अपने काम से संघर्षरत हो जाएगा, शत्रुता पाल लेगा, वे कभी भी ब्रह्मचर्य का अनुभव नहीं कर पाएंगे।
तंत्र कहता है, काम को तटस्थ होकर देखना पहला सूत्र है। काम को मित्र की तरह मत देखो, शत्रु की तरह मत देखो; काम को भोगने योग्य की भांति मत देखो, काम को त्यागने योग्य की भांति मत देखो। ओशो के अनुसार, काम को देखो एक शुद्ध ऊर्जा की भांति, एक प्योर एनर्जी की भांति। मित्रता-शत्रुता हमारे दृष्टिकोण हैं, तथ्य नहीं हैं।
काम को तटस्थता के साथ देखो, काम को एक ऊर्जा समझो, एक शक्ति समझो, फिर उसके साथ काम करने का ज्ञान पाओ। जब तुम काम को एक ऊर्जा की तरह देखोगे, तभी तुम उसे ब्रह्मचर्य में बदलने के लिए तैयार हो पाओगे।
उपसंहार
इस प्रकार, ओशो की अद्वितीय दृष्टि और तंत्र की ऊर्जा के परिवर्तन की प्रक्रिया हमें बताती है कि हम अपने अंदर की काम-ऊर्जा का कैसे उपयोग करें ताकि हम ब्रह्मचर्य और अंततः पूर्णता की ओर बढ़ सकें।
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